हमारी आशिक़ी का भी वो हाए क्या ज़माना था
फ़िज़ाएँ रंगीन लगती थी पतझड़ भी लगता सुहाना था
सूरज की तपिश हो या सड़क भरी हो बारिश के पानी से
ठिठुरती अंँधियारी रातों में भी उसको तो बस आना था
आते हीं शुरू हो जाती जमा अनेक चाय की प्याली
सबके साथ में शुरू रहता हमारा गाना बजाना था
मैं करती आख़िरी पेशकश अपनी पसंदीदा राग दरबारी कान्हड़ा से
मगर उसे तो मम्मी की फरमाइशों के साथ अंतहीन ग़ज़ल सुनाना था