भूल नहीं पाती हूँ मैं
वो दिलकश शाम
जब उसने
बाज़ार जाते वक़्त
पूछा था मुझसे
क्या लाऊँ तुम्हारे लिए
मैंने कहा कुछ नहीं
उसने कहा फिर भी...
कुछ तो बोलो
ज़िद उसने छोड़ी नहीं
मैं भी कुछ बोली नहीं
अंततः मुझे बोलना पड़ा
मैंने झूंझला कर कहा
आसमां से तारे तोड़ लाना
दो घंटे बाद वो आ कर
मुस्कुराते हुए
मेरा हाथ थाम कर
छत पर चल दिया
हतप्रभ विस्मित हो
मैं उसे देख हीं रही थी
कि उसने
निर्देश दिया
अपनी आँखें बन्द कर लो
फिर मेरे हाथ पर
कुछ रखते हुए
आँखें खोलने को कहा
मैंने देखा
सिगरेट के पन्नी से
बना सितारा
चाँदनी रात में
मेरे हाथ में
बिल्कुल असली
सितारे सा
चमक रहा था
मैं किंकर्तव्यविमूढ़
निःशब्द थी
दिल में खुशियों की
तरंगें उठ रही थी
सितारा के लिए नहीं
बल्कि इसलिए की
उस दो घंटे भी
उसके ज़ेहन में
मैं थी