बहती हवा, कहने लगी,
पौधों में कली, खिलने लगी,
प्रियतम भी याद आगये,
हलके से बादल छा गए,
होली भी आकर, चली गयी,
तितली इतराने लगीं,
भँवरे गीत गाने लगे,
हाथ पीले हो गये हैं
सरसों के भी,
बड़े होगये बच्चे,
कल परसों के भी,
धरती की चूनर भी,
हरियाली हो गयी,
सुहानी लगने लगी है,
अब शीतल पवन,
कह रहे हैं कुछ तो,
धरती और गगन,
'उपमा' उपवन को भी,
अब मिलने लगी,
जैसे नयी 'कविता' सी,
कहीं उगने लगीं,
भ्रमित सा मैं भी हूँ,
अब रहने लगा,
फाग माह जैसे,
कुछ कहने लगा।
-अशोक कुमार पचौरी
(जिला एवं शहर अलीगढ से)