जब परत जमीं हो अपनों से मिले ज़ख़्मों का
दर्द कहाँ फिर होता है गैरों के किए जुल्मों का
यहां कोई नहीं सुनने वाला दास्तांँ-ए-ग़म तुम्हारा
ख़ुद हीं कहो ख़ुद हीं सुनो फ़साना बदलते मौसमों का
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