Newहैशटैग ज़िन्दगी पुस्तक के बारे में updates यहाँ से जानें।

Newसभी पाठकों एवं रचनाकारों से विनम्र निवेदन है कि बागी बानी यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करते हुए
उनके बेबाक एवं शानदार गानों को अवश्य सुनें - आपको पसंद आएं तो लाइक,शेयर एवं कमेंट करें Channel Link यहाँ है

Show your love with any amount — Keep Likhantu.com free, ad-free, and community-driven.

Show your love with any amount — Keep Likhantu.com free, ad-free, and community-driven.



The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

Newहैशटैग ज़िन्दगी पुस्तक के बारे में updates यहाँ से जानें।

Newसभी पाठकों एवं रचनाकारों से विनम्र निवेदन है कि बागी बानी यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करते हुए
उनके बेबाक एवं शानदार गानों को अवश्य सुनें - आपको पसंद आएं तो लाइक,शेयर एवं कमेंट करें Channel Link यहाँ है

The Flower of Word by Vedvyas MishraThe Flower of Word by Vedvyas Mishra
Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

The novel 'Nevla' (The Mongoose), written by Vedvyas Mishra, presents a fierce character—Mangus Mama (Uncle Mongoose)—to highlight that the root cause of crime lies in the lack of willpower to properly uphold moral, judicial, and political systems...The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

                    

उदय प्रकाश - 'पिता झाड़-झंखाड़'

May 10, 2024 | कविताएं - शायरी - ग़ज़ल | लिखन्तु - ऑफिसियल  |  👁 23,281


पिता झाड़-झंखाड़, घाटियों और पत्थरों से भरे
चटियल मैदान थे।
पिता सागौन, शीशम, बबूल, तेंदुओं और हिरनों से भरे
बीहड़ थे।

बचपन में अक्सर
किसी ऊँचे टीले पर चढ़ कर
मैं आस-पास के गाँवों में
ललकार दिया करता था
नाके के पार
शहर तक में
पिता का रोब था।

एक-एक इमारत पर
उनकी कन्नियाँ सरकी थीं।
एक-एक दीवार पर
उनकी उँगलियों के निशान थे।
हर दरवाज़े की काठ पर
उनका रंदा चला था।

नाके के इस पार
जहाँ से गाँव की वीरानगी शुरू होती है
हर खेत की कठोर छाती पर
पिता अपनी कुदाल
धँसा गए थे।

हल की हर मूठ पर
उनकी घट्ठेदार हथेलियों की छाप थी।
हर गरियार बैल के पुट्ठों पर
उनके डंडे के दाग थे...
बचपन में
पिता के कंधे पर बैठ कर
मैं बाज़ार घूमने जाता था।

पिता पहाड़ की तरह
चलते भीड़ की तरह
उनके कंधे पर मैं
जंगली तोते की तरह बैठा रहता।
बाद में पिता
ग़ायब हो गए
कहते हैं खेल, कुदाल,
बैल, इमारतें, ईंटे, दरवाज़े, बाज़ार
उन्हें पचा गए।

मुझे लगता है
उस चटियल मैदान
के भीतर (जो पिता थे)
ज़मीन की दूसरी-तीसरी परतों में।
सरकता हुआ कोई
नम सोता भी था
जो मेहनत करते
पिता की देह के अलावा
कभी-कभी मेरी आँखों से भी
रिसने लगता था।




समीक्षा छोड़ने के लिए कृपया पहले रजिस्टर या लॉगिन करें

रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (1)

+

पवन कुमार "क्षितिज" said

बहुत ही शानदार और मार्मिक रचना है..पिता की पूरी उम्र को फिर से जी कर दिखा दिया आपने..शानदार ..👌👌👌👌👌👌👌

कविताएं - शायरी - ग़ज़ल श्रेणी में अन्य रचनाऐं




लिखन्तु डॉट कॉम देगा आपको और आपकी रचनाओं को एक नया मुकाम - आप कविता, ग़ज़ल, शायरी, श्लोक, संस्कृत गीत, वास्तविक कहानियां, काल्पनिक कहानियां, कॉमिक्स, हाइकू कविता इत्यादि को हिंदी, संस्कृत, बांग्ला, उर्दू, इंग्लिश, सिंधी या अन्य किसी भाषा में भी likhantuofficial@gmail.com पर भेज सकते हैं।


लिखते रहिये, पढ़ते रहिये - लिखन्तु डॉट कॉम


© 2017 - 2025 लिखन्तु डॉट कॉम
Designed, Developed, Maintained & Powered By HTTPS://LETSWRITE.IN
Verified by:
Verified by Scam Adviser
   
Support Our Investors ABOUT US Feedback & Business रचना भेजें रजिस्टर लॉगिन