पिता झाड़-झंखाड़, घाटियों और पत्थरों से भरे
चटियल मैदान थे।
पिता सागौन, शीशम, बबूल, तेंदुओं और हिरनों से भरे
बीहड़ थे।
बचपन में अक्सर
किसी ऊँचे टीले पर चढ़ कर
मैं आस-पास के गाँवों में
ललकार दिया करता था
नाके के पार
शहर तक में
पिता का रोब था।
एक-एक इमारत पर
उनकी कन्नियाँ सरकी थीं।
एक-एक दीवार पर
उनकी उँगलियों के निशान थे।
हर दरवाज़े की काठ पर
उनका रंदा चला था।
नाके के इस पार
जहाँ से गाँव की वीरानगी शुरू होती है
हर खेत की कठोर छाती पर
पिता अपनी कुदाल
धँसा गए थे।
हल की हर मूठ पर
उनकी घट्ठेदार हथेलियों की छाप थी।
हर गरियार बैल के पुट्ठों पर
उनके डंडे के दाग थे...
बचपन में
पिता के कंधे पर बैठ कर
मैं बाज़ार घूमने जाता था।
पिता पहाड़ की तरह
चलते भीड़ की तरह
उनके कंधे पर मैं
जंगली तोते की तरह बैठा रहता।
बाद में पिता
ग़ायब हो गए
कहते हैं खेल, कुदाल,
बैल, इमारतें, ईंटे, दरवाज़े, बाज़ार
उन्हें पचा गए।
मुझे लगता है
उस चटियल मैदान
के भीतर (जो पिता थे)
ज़मीन की दूसरी-तीसरी परतों में।
सरकता हुआ कोई
नम सोता भी था
जो मेहनत करते
पिता की देह के अलावा
कभी-कभी मेरी आँखों से भी
रिसने लगता था।