तुम्हें ढूँढते-ढूँढते ख़ुद को खो दिया मैंने,
एक उम्र का हिसाब, पल में गँवा दिया मैंने।
जो सच था, वही सबसे ज़्यादा चुभा सबको,
तो झूठ की चादर में ही ख़्वाब सजा दिया मैंने।
तुम्हारी बेरुख़ी का भी इक अजब ही असर हुआ,
हर आईने को अपना गुनहगार बना दिया मैंने।
दिल को कोई उम्मीद ही नहीं किसी से अब,
इसी को ही सबसे बड़ा इनाम बना दिया मैंने।
जहाँ लोग मोहब्बत में अमर हो जाते हैं,
आशिक़ी को ही बेफिक्री में सुला दिया मैंने।"
वेदव्यास मिश्र की आशियाना कलम से..
सर्वाधिकार अधीन है