तुमने फिर कलमा पढ़वाने के नाम पर
छब्बीस साँसों को ज़मीं पर गिरा दिया —
वाह रे ईमान के सौदागरों,
ये कौन सी नमाज़ है जो मासूमों के गले से शुरू होती है?
क्या तुम्हारा अल्लाह गूंगा है,
जो बंदूक से बात कराता है?
क्या तुम्हारे रसूल ने यही कहा था —
कि जो न दोहराए, उसे मिटा दो?
क्या तुम्हारी आत्मा भी किराए की है?
जैसे तुम्हारे शब्द — और तुम्हारी बंदूकें।
पहाड़ों की बर्फ़ भी पिघल गई आज,
जब एक बाप की उँगली छोड़ी उसकी बेटी ने
और पूछा —
“अब्बू, ये कौन सा ख़ुदा था…?”
शर्म करो!
उन माँओं से नज़रे चुराओ
जिन्होंने बेटों को ईमान सिखाया था
ना कि मज़हब की आँधी में झोंक देने का हुक्म दिया।
तुम आतंक नहीं,
एक सड़ांध हो इस धरती की,
जो हर बार धर्म का नाम लेकर
इंसानियत को दफ़ना आती है।
तुम्हारा जिहाद नहीं —
कायरता का छिछोरा नारा है!
जो सिर पर टोपी रखता है,
पर दिल में बारूद ढोता है।
और वो नेता जो मुँह में कपड़ा ठूँसे बैठे हैं —
उठो! देखो!
ये तुम्हारे वोटों से बने वो नक्शे हैं
जिन पर आज लहू की धार बही है।
अब नहीं चुप रहेंगे हम।
अब हर कविता तलवार बनेगी।
अब हर ग़ज़ल गोली बनेगी।
अब हर आँसू
तुम्हारे आतंक के सीने में उतरने वाला सवाल बनेगा:
“तुम कौन हो? इंसान या इबलीस?”
“क्या वाक़ई तुम्हारे ईश्वर ने तुम्हें ये काम सौंपा था?”
छब्बीस चिताएँ जल रही हैं पहलगाम की हवा में,
और मैं पूछता हूँ —
“क्या अब भी तुम्हारी आत्मा ज़िंदा है?”