अब मैं माँ बन गई हूँ — स्वयं की”
(श्रृंखला: मैं फिर से शारदा बन रही हूँ)
मैंने बहुत बार माँ बनने की कल्पना की,
किसी और के लिए,
किसी और जीवन को पालने के लिए।
पर जिस दिन
मैंने खुद को टूटकर देखा —
बिखरा, थका, रोता हुआ,
मैंने खुद को गोद में उठाया।
न कोई lullaby,
न कोई झूला,
बस मेरे आँचल में
मेरी ही हथेलियाँ थीं।
मैंने अपने भीतर की छोटी शारदा से कहा —
“रो मत… मैं हूँ।
मैंने तुम्हें बहुत देर अकेला छोड़ा,
पर अब मैं नहीं जाऊँगी।”
मैंने अपनी ही चोटों पर
सिर्फ़ मरहम नहीं रखा —
उन्हें चूमा भी।
कहा,
“ये ज़ख्म नहीं,
ये गवाह हैं कि तुम जीती रही हो।”
अब जब कोई दुख आता है,
मैं खुद को कसकर गले लगाती हूँ —
बिलकुल वैसे
जैसे एक माँ,
अपने रोते बच्चे को चुप कराती है।
अब मैं डाँटती नहीं,
तोड़ती नहीं,
बस सुनती हूँ —
अपने भीतर की सिसकियों को,
बिना कोई उत्तर दिए।
अब मेरे भीतर
कोई बच्ची भी है,
और एक माँ भी।
दोनों
हर रात एक-दूसरे को थामकर सो जाती हैं।