तेरी आँखों में जो उलझा, सुलझना भूल बैठा हूँ,
तेरी बाहों की खुशबू में, महकना भूल बैठा हूँ।
चली आई थी चुपके से, वो सावन की फुहारों सी,
मैं सूखी डाल था, हरियाल होना भूल बैठा हूँ।
तेरे होठों से छलका है, जो जादू चाँदनी जैसा,
मैं अपनी रात के आँगन में जलना भूल बैठा हूँ।
मुझे छू कर गुजरती है तेरी बातों की सौंधी हवा,
मैं पत्थर था, मगर अब संगमरमर सा पिघलता हूँ।
तेरी ज़ुल्फों की छाँवों में जो इक सपना सजाया था,
उसी सपने में जीता हूँ, जगाना भूल बैठा हूँ।
----अशोक कुमार पचौरी