कुछ तो था, जो कहा नहीं गया,
कुछ था — जो सहेजा नहीं गया।
सिंदूर तो माँग में था हर रोज़,
मगर माथा कभी झुका नहीं गया।
जो लाल रंग था — शायद तेज़ था,
पर उसकी आँच कभी बुझा नहीं गया।
उसने कहा — “अब तू मेरी है,”
और मैं खुद से जुदा नहीं गया।
ये कौन सी रस्में थीं, जिनमें मैं थी,
पर कोई हिस्सा मेरा लिखा नहीं गया।
हर सुबह एक नई पहचान मिली,
पर “मैं” कभी नाम लिया नहीं गया।
आईना चुप था, माथा सजा था,
कुछ था जो किसी को खला नहीं गया।
वो कहते रहे — “तू सौभाग्यवती है,”
मैं सुनती रही… जवाब दिया नहीं गया।
अब सोचती हूँ, वो क्षण कैसा था
जब सिंदूर से प्रेम मापा नहीं गया।
सिंदूर की क़ीमत पूछते हो?
कभी माँग के नीचे आँसू देखे हैं?