त्राहि!
अब हर श्वास शूल सी चुभती है,
तेरे बिना इस जीवन में
ना राग है, ना रेखा—
बस मौन का कोई टूटा चित्र
जिसे किसी ने अधूरा छोड़ दिया।
कहाँ हो तुम?
मैंने तो हर जन्म
तेरे नाम की पुकार में जिया,
हर पीड़ा को तेरे चरणों की धूल समझ
माथे से लगा लिया।
तू था—
कभी क्षण भर की अनुभूति में,
कभी स्वप्न की सिहरन में,
पर पकड़ में कभी नहीं आया—
जैसे कोई गंध,
जो हवा में तो है,
पर हाथ में नहीं आती।
मैंने
मन के मंदिर में
तेरे नाम का दीप जलाया था,
पर तू हर बार
किसी अगली यात्रा का वादा देकर
मेरे वर्तमान से चला गया।
अब और नहीं प्रभु,
अब इस जनम की थकान
आत्मा तक उतर आई है।
ना पुनर्जन्म की डोर बाँधो,
ना किसी स्वर्ग की सीढ़ी दिखाओ—
बस इस बार,
मुझे स्वयं में मिला लो।
मैं कोई वरदान नहीं माँगता,
ना चमत्कार,
ना दर्शन—
मैं तो केवल
तेरे मौन का एक अंश चाहता हूँ,
ताकि अब ये खोज ठहर जाए j।
अगर कभी
तेरे अंतस में
मेरी पुकार की एक लहर भी गूंजे—
तो इस जनम में ही
मुझे अपना बना लेना।
मैं
अब प्रेम नहीं माँगता,
भक्ति भी नहीं
बस
तेरे होने की शांति चाहता हूँ।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड