मैंने उठाई थी
एक मुठ्ठी राख —
ना जाने किस जन्म की धुनी थी वो,
जिसमें कोई नाम नहीं था,
बस एक साँस थी,
जिसकी हर थाप में
तू ही तू धड़कता था।
ना कोई आरती,
ना कोई मंत्र —
फिर भी मेरा माथा झुक गया
उस राख के सामने,
जिसमें तू
बिना किसी प्रतीक के
जलता रहा,
सुनाई दिए बिना
बोलता रहा।
मैं न कोई साधक था,
न भिक्षु —
मगर जब तेरी ख़ामोशी
मेरे भीतर उतरी,
तो रूह ने
अपना शरीर छोड़ दिया।
मेरी त्वचा
अब शब्द नहीं ओढ़ती —
बस तेरे मौन का एक जोग बन गई है,
जो हर रात
मेरे भीतर
अनहद-सा जलता है।
कैसी फूँक मारी रे जोगी तूने!
मैं ना जला,
ना बचा —
बस तेरी राख में
लिखा गया
एक ऐसा हर्फ़,
जिसे कोई ज़बान
अब दोहरा नहीं सकती।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड