आज फिर अरसों बाद कहीं
मैंने चौखट वो लांघी है,
न मेरी पिता न दादा की
पर माता की जन्म भूमि है ।
वो भी अनुवंशक है मेरे
पर उन्हें न कोई जाने है,
हाँ यही कुटीर है इक ऐसा जो
नानी का घर कहलावे है ।
आज भी यहाँ, इक बूड़ा
अपनी बुढ़िया के संग रहता है,
है उम्र यही कुछ अस्सी की
पर हसी आज भी पक्की है ।
हाँ ,हर गर्मी की छुट्टी में
पहले तो यही ठिकाना था,
वो पल भी कितना अच्छा था
मौसम भी बहुत सुहाना था ।
वो समय सोच के फिर मैंने
आँखो में आँशु भर डाले,
मिट्टी हाथों में लेकर के
हाथों पैरों में लगा डाले ।
उन अमियो कि डलियों के संग
मैंने ख़ुद को सिसकते देखा है,
उनका भी तो बचपन ही था
सब संग हमारे खेले हैं ।
हाँ फिर अरसो बाद कहीं
नानी के घर मैं आया हूँ,
हाँ फिर अरसों बाद कहीं
नानी के घर मैं आया हूँ ।।