जब राहें हों धुंधली-सी, मंज़िल धुंध में खो जाए,
तब भीतर का दीपक ही, अंधेरों को संजो जाए।
टूटे ख्वाब फिर जुड़ते हैं, हौसलों की लौ जलाकर,
विश्वास स्वयं में हो जब, तो सागर भी हो सधा कर।
नज़रों में हो लक्ष्य अगर, पग रुकते फिर कब हैं,
पर्वत भी झुकते हैं वहां, जहाँ आत्मा में रब हैं।
डगमग जो नैया करे, तू पतवार खुद बन जाना,
औरों से उम्मीद नहीं, खुद को ही अब मनाना।
खुद को पहचानो पहले, फिर जग को जीतोगे,
जो भीतर से न डगमगाए, वही सच्चे बीज बोए।
सपनों की चादर बुननी है, तो संकल्पों को सीना,
हर हार को तू पाठ बना, और जीत का दीपक बीना।
आत्मबल जब साथ हो तेरे, राहें खुद आसान बनें,
थके कदम भी फिर गाते हैं, जब मन में अरमान बनें।
खुद को गिरा के रोना क्या, उठो और चलना सीखो,
कांटों से कह दो – “अब हट जा, मैं फूलों जैसा जीऊँगा।”
विश्वास स्वयं में हो जब, तू जग से नहीं डरता,
खुद ही बन जाता तू दीपक, जो तम को भी हरता।
----अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'
सर्वाधिकार अधीन है

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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