मंझियां तन गईं हैं सफ़ील तोड़ने को
ग़ुरूर ज़ालिमों का तवील तोड़ने को,
हम चले हैं नफ़रतों का मील तोड़ने को।
कब तक रहेगा वो यू.एस. के क़िले में,
मंझियाँ तन गईं हैं सफ़ील तोड़ने को।
झूठ की सल्तनत अब नहीं चल सकेगी,
सच उठ खड़ा है दलील तोड़ने को।
डूब जाएगा आज उसका ग़ुरूर भी,
सैलाब आ गया है झील तोड़ने को।
हश्र क्या होगा सियासत के मुक़दमे का,
तुरप चाल आ गई है वक़ील तोड़ने को।
बनावट के उजालों के दिन लद गए,
पतंग उड़ चली है क़ंदील तोडने को।
है उसको भी उसके ताबूत में लिटाना,
ज़फ़र जो भी बढ़ता है कील तोड़ने को।
ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
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