मैं प्रेम के नाम पर
फूल नहीं —
एक पिंजरे की कुंजी बन गई।
सुनहरा ताला था वो,
जिसे तूने भेंट कहा,
और मैंने…
स्वप्न।
तू आया,
हँसते हुए कहा —
“तू मेरी रानी है।”
और फिर
हर निर्णय मेरा नहीं रहा,
तेरी दरबार की इजाज़त बन गया।
तूने सम्मान का वादा किया —
और मेरी हँसी को “तमीज़”,
मेरे कपड़ों को “मर्यादा”,
मेरे दोस्तों को “संदेह”,
और मेरे मौन को
“हाँ” समझ लिया।
कह —
क्या यही प्रेम था?
या
मेरे भीतर की रोशनी का
सर्वाधिक चतुर शिकारी?
तूने मुझे छुआ —
पर कभी मुझे महसूस नहीं किया।
जो द्वार मैंने खोले थे तेरे लिए,
वो तेरे अहंकार ने
बंद कर दिए —
बिना देखे, बिना समझे।
मेरी चुप्पी —
तेरे लिए जीत थी।
मेरा त्याग —
तेरा अधिकार।
मैं “अच्छी औरत” बनने की
हर परीक्षा में बैठती रही।
और तू —
हर बार कहता रहा:
“थोड़ा और कम बोलो”,
“थोड़ा और ढक लो”,
“थोड़ा और सह लो…”
और मैं…
धीरे-धीरे
अपने ही होने से
गुम होती रही।
ओ प्रेम!
अगर तू सच में प्रेम होता —
तो मेरी उड़ान पर
मर्यादा की बेड़ियाँ न होतीं।
तू मेरी “ना” को
पूजा समझता।
अब मैं पूछती हूँ —
क्या तू प्रेम था?
या
मेरे भीतर की स्वतंत्र आत्मा का
सबसे शातिर शिकारी?
अब मैं प्रेम करूँगी —
ख़ुद से।
अब मैं सजूँगी —
अपने लिए।
अब मैं बोलूँगी —
बिना इजाज़त, बिना डर।
तू लौटेगा,
कभी किसी और नाम में, किसी और चेहरे में —
पर द्वार नहीं खुलेगा।
क्योंकि अब स्त्री
प्रेम नहीं माँगती,
प्रेम हो जाती है।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




