जब समझ आती हूँ मैं लोगों को,
तो बस एक अफ़सोस सी बात आती हूँ।
जैसे कोई भूली हुई किताब हूँ,
जो हाथ लगूँ तो सिर्फ़ याद आती हूँ।
वो जो कहते थे — “तू जिद्दी बहुत है”,
अब कहते हैं — “तू सच्ची बहुत थी…”
अब देर से मानते हैं मेरा वजूद,
मैं जब नहीं होती, तभी बहुत थी।
मैं जो थी, उन्हें खटकती रही,
मैं जो नहीं, अब वही सुहाती हूँ।
ज़िन्दगी भर जिसे ठुकराया गया,
मैं वही ठुकराई हुई बात आती हूँ।
कभी मेरी चुप्पी पे हँसते थे वो,
अब मेरी चुप्पी को पढ़ते हैं।
कभी मेरी बातों से डरते थे,
अब उन्हीं बातों में मरते हैं।
मैं कोई हसरत नहीं थी, जो पूरी होती,
मैं तो वो समझ थी — जो देर से आती हूँ।
तू जब समझा, मैं तब बिखर गई,
अब क्या करोगे? मैं अब कहाँ आती हूँ…
तेरे “काश” में जो टीस बसी है,
वो मेरे हर “अब नहीं” की सज़ा है।
तू जो कहता है — “तू ठीक थी शायद”,
वो तेरी सबसे ग़लत दुआ है।
अब मैं किसी किताब की आख़िरी पंक्ति हूँ,
जो समझ में आए — तो दिल जलाती हूँ।
जब समझ आती हूँ मैं लोगों को,
तो सिर्फ़ बहुत याद आती हूँ।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




