कितनी बेड़ियाँ तोड़ कर,
हर मोर्चे पर वो आ गई।
पहचान बना खुद की,
दूजा रब कहला वो हार गई।
नहीं गई न जाएगी,
ये जिस्म में रह जाएगी।
पाषाण से अंतकाल तक,
ये पशुत्व सोच न जाएगी।
किस रूप में तू आएगी,
हिफ़ाज़त खुद कर पाएगी?
सोच वक़्त तू आज ज़रा,
किस दर्ज़े में बच पाएगी?