कहीं एक उभरता सितारा टूट गया है शायद फिर
अपनों से ही अपना कोई रूठ गया है शायद फिर
एक मुद्दत से रहा तेरी वफ़ा का भरम हमको बड़ा
आज गुब्बारा वही खुद ये फूट गया है शायद फिर
फिजा में नफ़रतों की गंध बहने लगी है ज्यादा जो
रिवाज़ मुहब्बत का अब उलट गया है शायद फिर
दिया है जलता नहीं कोई महज तेल और बाती से
नई चिंगारी का दम ही निकल गया है शायद फिर
दस्तरखान दुआओं का बिछाये हैं जिसकी खातिर
हमारे नाम से भी दास वह डर गया हैं फिर शायद