मैं दौड़ी थी
सौंदर्य के पीछे,
जैसे कोई वसंत
पतझड़ की शाखों में खोजता है हरियाली।
चेहरे के तेज़ में
अपना अंधेरा छुपाया,
आईने से कहा –
“तू मुझे वही दिखा,
जो दुनिया को भा जाए।”
मैं हँसी थी…
जब भीतर रो रही थी,
क्योंकि बाहर का सौंदर्य
भीतर की चीत्कार को चुप करा देता है।
काजल से ढँकी आँखें
भूल गई थीं
कभी आत्मा भी देखती है—
सिर्फ आँखें नहीं।
मैंने बालों को संवारा,
होंठों को रंगा,
और आत्मा को उघाड़ा
बिन किसी छांव के।
सौंदर्य के पीछे भागते हुए
मैंने अपनी असलियत खो दी,
सिर्फ इसलिए कि
किसी की नज़र में टिक जाऊँ
किसी की मोहब्बत में खूबसूरत लगूँ।
पर जिसने मुझे देखा था…
वो मेरी मुस्कुराहट में
दर्द नहीं पढ़ सका,
वो मेरी त्वचा के नीचे
जन्म लेती अशांति को
कभी छू नहीं सका।
आज मैं रुकी हूँ।
आईना रखा है लेकिन देखा नहीं।
लिपस्टिक सूख रही है,
पर होंठ पहली बार
सच बोल रहे हैं।
सौंदर्य कोई दोष नहीं,
पर अगर वो आत्मा की आवाज़ को
दबा दे —
तो वो एक ज़हर है
जो धीरे-धीरे
स्त्री को मिटा देता है।
अब मैं सुंदर नहीं दिखना चाहती,
अब मैं सिर्फ…
सच लगना चाहती हूँ।
शारदा