बड़ी असमंजस में पड़ा हूँ,
ना जाने कहा तो खड़ा हूँ,
ना रास्ता ना राही,
ना ही मंजिल नज़र आती है
किस जगह पर खड़ा हूँ?
किस वजह से खड़ा हूँ?
तूफ़ान नज़र आते हैं
बाद एक के एक मगर
मशला है कि तूफानों में भी
कैसे बचा पड़ा हूँ?
एक शाम हुआ करती थी,
अब वो भी कहीं ग़ुम है,
बस दोपहर है या फिर रात
सुबह न जाने कहाँ है
ये कहाँ आकर फॅसा हूँ?
उलझनों को सुलझाते क्यों
और उलझ गया हूँ?
बड़ी असमंजस में पड़ा हूँ,
ना जाने कहा तो खड़ा हूँ,
ना रास्ता ना राही,
ना ही मंजिल नज़र आती है
किस जगह पर खड़ा हूँ?
किस वजह से खड़ा हूँ?
----अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'