ये वो ही राहें हैं ऐ हमसफ़र,
जिस पर कभी हम सफ़र किया करते थे।
ये गली,मोहल्ला,घर वही है,
जिसमें कभी हम बसर किया करते थे।
ये वो ही दिल है,
जिसमें कभी हम धड़कते थे।
ये इज़्ज़त,ये आबरू वही है,
कभी जिसकी ख़ुशबू से हम महकते थे।
ये दरिया,ये समंदर वही है,
जो कभी हमारे पैरों को छुआ करते थे।
ये गुल,ये गुलशन वही है,
कभी जिसकी शान हम हुआ करते थे।
ये ज़ुबां वही है,
जिस पर कभी मेरा नाम हुआ करता था।
ये हाथ,ये आँखें वही हैं,
जो कभी फ़क़त मेरी ही दास्तां लिखा करते थे।
ये जाड़े का कोहरा, ये गर्मियों की
चिलचिलाती धूप वही हैं,
जो कभी मेरी दास्तां हर गली कूचों में
सुनाया करती थी।
ये वैशाखी शाम की ठंडी हवा,ये कोयल,
ये पपीहा वही हैं,
जो कभी मेरी ही ग़ज़लें गाया करते थे।
~रीना कुमारी प्रजापत