रण छोड़ चुके हैं वीर अब
Lalit Dadhich
रण छोड़ चुके हैं वीर अब,
आलस्य प्रगाढ़ पश्चिम का तूफान बना है,
जो गिरते ही थे उठने को,
वो भी उठकर गिर चुके हैं,
बैरी नहीं है बैरी बनाए हैं,
देरी पर देरी लगाएं हैं,
खो चुका है उनका हृदय,
आराम करने को धरती से सिर लगाए हैं,
चूमते थे माटी को अपने हृदय की अग्नि समझ कर,
बुझा दिए हैं ज्ञान अपना,
बिस्तर को गले लगाए हैं,
खत्म हो चुका है वीर तत्व,
बेवजह सवाल उठाए हैं,
आजादी के दीवाने,
अब हर क्षण घबराए हैं,
रण में हर क्षण को दे दिए,
पहले किसी ने देखा होगा,
नव भूमि को देख,
पगड़ी आंखों को छुपाए हैं,
हे! वीर तुम अब कहां,
अब वीर कहां ,
सारे तो रोटी, कपड़ा और मकान,
अपने होने पर ही दिल लगाए हैं,
जिनको सब कुछ क्षणिक चाहिए,
कहां चिरस्थाई आनंद पाए हैं,
एक एक कर वीर अधीर निकले,
आज के मानव केवल शरीर निकले,
धैर्य से ही धारा छोड़ चुके हैं अब,
रण को ही बैरी बतलाएं हैं।।
- ललित दाधीच।।