सख़्त हकीकतों की थीं, ज़िस्मोज़ाँ पर निशानियां बहुत..
अफसाने तो मिट चले, मगर बाकी थी कहानियां बहुत..।
कहने को तो हर कदम, सबक दिए इस ज़माने ने हमको..
मगर फिर भी हिस्से में आई, मेरे नादानियां बहुत..।
उनको भूलने की गुस्ताखी, ये दिल करता भी कैसे..
मेरी यादों में कायम थी, उनकी मेहरबानियां बहुत..।
हाथों से छू लिया था हमने, कई दफ़ा दामन उनका..
मगर हम करते भी तो क्या, दिलो में थीं दूरियां बहुत..।
हमारी साफ़गोई ने कुछ हासिल होने ही न दिया हमको..
वो जो मुकाम हासिल कर गए, आती थीं उनको जी–हुज़ूरियाँ बहुत..।
पवन कुमार " क्षितिज"