मैंने हर मोड़ पे इक और मैं देखा वहाँ,
जहाँ तू नहीं था — पर मैं रुकी रही वहाँ।
तेरे ना होने का सबूत मिलते रहे,
फिर भी तेरा नाम मेरी पलकों पे था वहाँ।
मैंने चाहा कि कोई पुकारे मुझे,
पर सिसकियाँ थीं — और तन्हा गूँजती थी वहाँ।
तू जो आया भी नहीं — फिर भी इक दर था,
जहाँ हर शाम उम्मीद बैठती थी वहाँ।
मैंने जाने कितनी बार ख़ुद से कहा,
“अब नहीं…” — और फिर भी झुकती रही वहाँ।
तू नहीं था कभी मेरा — ये जानती थी ‘शारदा’,
फिर भी तुझमें हर रोज़ ख़ुद को ढूँढ़ती रही…