मुझसे क्या भूल हुई, प्रीतम,
जो मेरी साँसों की माला के मोती
एक-एक कर बिखरते गए,
और तुमने उन्हें समेटा भी नहीं
क्या मेरी पुकार में वह स्वर नहीं था
जो तुम्हारे नाम के काबिल हो?
या मेरी अँखियों की धार
इतनी निर्मल न थी
कि तुम्हारे चरणों तक पहुँच पाती?
मैंने तो हर रात
अपने आँसुओं से दीप जलाए,
हर सवेरे अपने सपनों को
तुम्हारी चौखट पर रख दिया,
फिर भी क्यों अंधेरों ने मुझे अपना लिया,
और तुम ओस की तरह
मुझे छूकर भी मुझसे दूर हो गए?
कौन-सा शब्द अधूरा रह गया
मेरी प्रार्थनाओं की बांसुरी में?
कौन-सी साँस कम पड़ गई
तुम्हारी पुकार में?
कौन-सा अश्रु हल्का रह गया
जो तुम्हारी दहलीज़ तक न पहुँच सका?
प्रीतम,
अगर मेरी भक्ति में कोई दरार आ गई,
तो अपनी कृपा से भर दो न।
अगर मेरी श्रद्धा पर कोई धूल जम गई,
तो अपने स्पर्श से झाड़ दो न।
पर यूँ रूठकर न जाओ
कि मेरी आत्मा का दीप
सदियों तक अंधकार में काँपता रहे…
-इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड