मुझे लोग सारे अब पढ़ने लगे हैं,
थोड़ा ही सही पर समझने लगे हैं !!
किताबें न समझें शिकायत नहीं,
पन्ने ही समझके पलटने लगे हैं !!
पहले-पहल जब लिखता था मैं,
थी कक्षा में पीछे की कुर्सी पसंद !!
शिक्षक थे नाराज़ मुझसे बहोत,
आख़िर है क्या इसकी कोई वज़ह !
अब वे वज़ह सब समझने लगे हैं !!
समझाते थे सब है आदत बुरी,
लिखने से मिलता ही है क्या आख़िर !!
ना ही समीर है ना अन्जान तू ,
ना आनन्द बख्शी की औलाद तू !!
मना करते थे वे मनाने लगे हैं !!
वे लिखने लगे लिखवाने लगे हैं !!
जंगल का जंगला न बनना कभी,
हिम्मत करो और आगे बढ़ो !!
जो प्रांकुर बनेगा खिलेगा भी वो,
खिलेगा जो यारो वो फैलेगा भी !!
सावन में जो मुरझाया कभी,
वही फूल पतझर में खिलने लगे हैं !
सर्वाधिकार अधीन है