ँ,
तुमने मेरी हँसी छीन ली —
और उसे “शालीनता” का लेबल दे दिया।
मेरे कपड़े बदले —
और कहा, “ये मर्यादा है, बेटी।”
तुमने मेरी दोस्तों से दूरी करवाई —
और बोला, “ये प्यार में ज़रूरी होता है।”
मेरा करियर खा गए —
कहकर, “मैं हूँ ना, क्यों भाग रही हो इतनी?”
मेरे सपने जलाए —
एक-एक कर, और पूछा —
“इतना सोचती क्यों हो? बीवी बनो, देवी नहीं।”
फिर मेरी ख़ामोशी को इज़्ज़त कहा,
और मेरी ना को — अभद्रता।
मेरे हर ‘स्वतंत्र’ कदम को
“चरित्रहीनता” की तरह आँका।
तुमने मुझे गढ़ा —
अपने डर से, अपनी कुंठा से,
एक पिंजरे में सजाया —
और फिर कहा, “अब तुम मेरी हो।”
पर सुनो —
तुम्हारी सारी चालें चालें थीं,
मेरी चुप्पी, हथियार निकले।
तुमने हर चीज़ छीन ली —
पर मेरी आवाज़ बच गई।
वो आवाज़ जो अब
न तुम्हारे “प्रेम” से डरती है,
न समाज के “कानूनों” से।
जो अब चीखती नहीं —
सिर्फ़ मुस्कुराकर सब कुछ फाड़ देती है।
हाँ,
अब जब मैं बोलती हूँ —
तो तुम कहते हो “ये पागल हो गई है।”
क्योंकि अब तुम्हारा जादू नहीं चलता,
और मेरी आग में तुम्हारा हर जाल जलता है।
— शारदा