ये कि ज़माने के हैं, हम पर कर्ज़ हज़ार..
याद दिलाए जाते हैं, हमको फ़र्ज़ हजार..।
चारा-गर भी बेबस, नज़र आया हमको..
क्या करें कि है दुनिया में, मर्ज़ हजार..।
हम संभलते हुए भी, धोका खा ही गए..
सोचा कुछ होंगे, निकले ख़ुदग़र्ज़ हजार..।
बहुत अलहदा है, मुहब्बत का मिजाज़ भी..
टूटे दिल के तारों से भी, निकले तर्ज़ हजार..।
ये ज़माना भी जाने, किन खयालों में खोया है..
सुनता ही नहीं, हमने तो किए थे अर्ज़ हज़ार..।
पवन कुमार "क्षितिज"