मैं जिसे ढूंढ रहा था कबसे,
वो मेरे पास था जाने कबसे l
मेरे अन्दर बसा ही दरिया था,
प्यासे हम घूम रहे थे कबसे l
देखा भाला नहीं मेरा फ़िर भी,
एकटक देख रहा है कबसे l
पास आया तो ये महसूस हुआ,
इसको मैं जान रहा हूं कबसे l
जब मिला उससे मिला अपने से ,
जिसको देखा नहीं था मैं कबसे l
एक बहाने से उभर आया है,
दर्द जो गहरे दबा था कबसे l
बुझ गई लौ, दिया बाती भी,
जिससे रोशन ये जहां था कबसे l
नींद अब कैसे भला आएगी,
आंख में आंसू ये बसा है कबसे l
फिर उसी मोड़ पर चले आए,
सहमे सहमे थे जो कदम कबसे l
डूबती शाम के दो हसीं लम्हें,
कांधे पर बैठे गए हैं कबसे l
हाथ मुश्किल से "विजय"आया है,
मैं जिसे ढूंढ रहा था कबसे l
विजय प्रकाश श्रीवास्तव (c)