गुल से मिल के गुल तो शरमाता नहीं कभी
खुद ही आईने को आइना भाता नहीं कभी
चाँदनी की सारी महजबीं परियों को शायद
धूप बांहों में भरकर हंसना आता नहीं कभी
एक हसीं चेहरा जब जहन में रहेगा रातदिन
शायरी करता जिसे कहना आता नहीं कभी
तुम्हारे साथ चलते हुऐ सनम उम्र गुजर गई
बीता लम्हा इश्क का खुद आता नहीं कभी
दास दिल के सारे अरमाँ निकले कहाँ अभी
जिस्म में अब रूह का गुण आता नहीं कभी
भूखे मरना है उसे मंजूर खुद ही बेशक मगर
जंगल में उगी घास तो शेर खाता नहीं कभी