दुल्हन बनकर गई थी जो बेटी खुशी-खुशी,
आज क्यों है वो इतनी सहमी-सहमी।
है उसका भी कोई हक वहां,
फिर क्यों रहती है वो डरी-डरी।
दुल्हन बनकर गई थी जो बेटी झोपड़ियों में,
वो महलों में रहने वाली थी।
नाजों से पलने वाली वो मां-पापा की लाड़ली,
आज कितने दुःख झेल रही।
दुल्हन बनकर गई थी जो बेटी पिता के घर से अप्सरा सी थी,
आज हालत उसकी फुटपाथों पर रहने वालों
के जैसी हो गई।
चेहरे पर चमकता था नूर जिसके,
आज रंगत वो उसकी कहीं खो गई।
दुल्हन बनकर गई थी जो बेटी,
आज उसके जीवन में दुःखों की बाढ़ आ गई।
आंखों में जिसके ना आने दिया पिता ने एक भी आंसू,
आज वहां दिन-रात अश्क़ वो बहा रही।
~ रीना कुमारी प्रजापत