हमारे भीतर इंसान भी है शैतान भी, क्या करें..
मिटने वाली है हर एक पहचान भी, क्या करें..।
दुनिया का तमाशा तो, समझ गए इक रोज हम..
मगर खुद से रहे ताउम्र अन्ज़ान भी, क्या करें..।
आहिस्ता–आहिस्ता बदल गया, वो तमाम मंज़र..
न वो ज़मीं रही और न वो असमान भी, क्या करें..।
उनसे मुहब्बत में वफ़ा का वादा, किया न गया मगर..
दिल से मेरे कम न हुआ उनका गुमान भी, क्या करें..।
अबकी बहारों को कोसते रहे, ये मुरझाए हुए गुल भी..
मगर सूरते–हाल पूछने न आया, बाग़बान भी, क्या करें..।
पवन कुमार "क्षितिज"