प्यार? — बस अपनी ही बेइज़्ज़ती का हुनर,
इक लाश थी, जिसको उठाया हमनें।
हसरतों के कब्रिस्तान में बैठकर,
इश्क़ का नाम रटाया हमनें।
जिस्म से आगे न बढ़ सका जो,
उसे रूह का ताज पहनाया हमनें।
हर शिकस्त को ताबीज़ बना कर,
ख़्वाबों की लाशों को जलाया हमनें।
जिसने छीनी थी साँसें हमारे गले से,
उसी ग़म को भी गले लगाया हमनें।
प्यार? — इक बहुत सस्ता धोखा था,
जिसे उम्र भर का इबादत बनाया हमनें।
जो न समझा गया, वही प्यार था,
जो मिटा ही नहीं, वही वार था।
मैं जिसे रोग कहकर मिटाता रहा,
इक वही ज़िंदगी का इक़रार था।
इश्क़ — बस एक आदत थी मरने की,
और आदत से क्या कोई इनकार था?
तू जो आया तो हर शय बिखरने लगी,
तू जो बिछड़ा तो बस कुछ भी अशआर था।
सबके हिस्से में थोड़ा सा धोखा गिरा,
मेरे हिस्से में पूरा बाज़ार था।
प्यार — हाँ, इक मुनाफ़ा था, ख़्वाबों में,
हक़ीक़त में तो सिर्फ़ नुक़सान बार-बार था।