नई-नई बहु आई है घर,
कँगन खनके, चूड़ी सजे अवसर।
लाल घूँघट में चेहरा छुपाए,
लाज में भीगी, धीरे-धीरे मुस्काए।
कोहबर में बैठी, चुपचाप सी,
नई दुनिया में जैसे कोई किताब सी।
दीवारों पर चित्र हैं मंगल के,
पर दिल में चित्र हैं बचपन के।
याद आ रहा है वो पीपल तले खेलना,
सखियों संग हँसना, बेफिक्री में झूलना।
मायके की गलियाँ, माँ की पुकार,
अब सब हैं जैसे सपना एक बार।
कभी आँगन में झाड़ू लगाते हुए,
कभी पानी भरते, चूल्हा जलाते हुए,
आँखों से चुपचाप बहती है बूँद,
दिल कहता है — "अब वो गाँव बहुत दूर!"
सखियों की हँसी, छुप-छुप कर मिलना,
अब तो बस याद है, जैसे तसवीर मिलना।
यहाँ सब है — ससुराल, रीति-रिवाज़,
पर मन अभी भी बाँध नहीं पाया ताराज़।
धीरे-धीरे सीख रही है वह चलना,
इन नए रिश्तों में खुद को ढलना।
पर जब भी अकेली होती है वो,
गांव की मिट्टी सीने से लगती है गो।