गिर नहीं जाना खुद ही कहीं फिसल कर
हम कमल हैं कीचड़ उछालिये जी भरकर
अपनी बुराई सुनने का है हमें तजुर्बा बड़ा
चिकने घड़े हैं पानी डालियेगा खूब सरपर
खिलेंगे महकेंगे और खुद से बिखर जायेंगे
गुले बकावली हैं हम खिल जायेंगे मरकर
भीड़ का इक समंदर है जहाँ तक नजर पड़े
तन्हा रोता आदमी मिलता है मगर हँसकर
इक मुसीबत हो तो दास घर में पाल ले उसे
हर तरफ है दरिंदा खायेगा जिन्दा निगलकर
जिन्दगी जिंदादिली का एक बेहतर कल्प है
आदमी मुरदा है जो जिन्दगी जीता है डरकर II