उम्रभर तन्हाई में गुज़री, उस रात का कर्ज़ ना उतरा..
उनसे हुई आख़िरी बार की, मुलाक़ात का कर्ज़ ना उतरा..।
ज़माने को जो कहना था, वो तो कहके ही रहा..
और हमसे अपनी खामोशियों की बात का क़र्ज़ ना उतरा..।
वो बात–बात में वक्त की चाल में, कमियां निकालते रहे..
हमसे तो कभी मन मुआफ़िक़ हुए हालात का कर्ज़ ना उतरा..।
चमन में बेसबब ही गुल, भंवरों के एहसानमंद रहे..
उधर बाग़बाँ से अबकी बार हुई बरसात का कर्ज़ ना उतरा..।
बहियों में लिखा था, एक एक पाई का हिसाब दोस्तो..
मगर सदियों तक मुहब्बत के, एक लम्हात का क़र्ज़ ना उतरा..।
पवन कुमार "क्षितिज"