कैसी विडम्बना है बड़े होने की,
ख़्वाब बचपन के ही कहीं खोने की,
गुड़ियों, खिलौनों से बातें करने वाले,
अब खामोशी में ही रातें गुज़ारते हैं।
ना वो काग़ज़ की नाव रही,
ना बारिश में भीगने की चाह रही,
मासूमियत से भरी वो हँसी,
अब जिम्मेदारियों की जंजीर में फँसी।
कभी आँगन में दौड़ लगाते थे,
चाँद-सितारों को छूने जाते थे,
आज कंधों पर बोझ उठाए,
रिश्तों की डोर निभाते जाते हैं।
ना वो नन्ही शरारत रही,
ना माँ की गोद में राहत रही,
काग़ज़-कलम में जो सपने लिखे,
वो हिसाब-किताब में ही गुम हो गए।
कैसी विडम्बना है ज़िन्दगी की,
बचपन से बड़े होने की,
ख़ुशी की तलाश वही रहती है,
बस सूरत बदलती रहती है।
कलम से लिखा था जो नाम रेत पर,
लहरों ने मिटा दिया खेल समझ कर,
अब दस्तख़त ही पहचान बन गए,
क्यों रिश्ते दिल के अनजान बन गए?
ना वो भोले सवाल रहे,
ना अधूरे ख़्वाबों के जाल रहे,
मासूमियत की जो झलक थी आँखों में,
वो चिंता की सिलवटों में खो गई।
गुड़िया की शादी, वो खेल का घर,
आज मकानों का हिसाब है दर-ब-दर,
जहाँ चॉकलेट पे लड़ाई होती थी,
अब विरासत पे सन्नाटे होते हैं।
ना वो झगड़े दो पल के रहे,
ना वो मनाने के पल रहे,
अब चुप्पी ही उत्तर बन जाती है,
और मुस्कान भी बोझ लगती है।
अरे काश ज़िन्दगी की किताब में,
पन्ने पलटते वक़्त रुक जाते,
बचपन की स्याही से लिखे हुए,
कभी मिटते ही नहीं…
कैसी विडम्बना है, समय की चाल,
बचपन रहा सबसे ख़ूबसूरत ख़याल,
आज भी हम वही बच्चे हैं भीतर,
पर दुनिया ने पहना दिए बड़े होने के जाल।
कभी पतंगों के पीछे भागते थे,
नीले अम्बर से बातें करते थे,
अब आसमान देख भी डरते हैं,
कर्ज़ और सपनों में ही उलझते हैं।
ना वो छत पर शाम रही,
ना तारे गिनने की बात रही,
आज गिनती है बस कमाई की,
ना निश्छल हँसी की सौगात रही।
कभी मिट्टी में हाथ सने थे,
कभी रंगों में बदन रँगे थे,
अब दस्ताने पहन के जीते हैं,
सफ़ाई में ही रिश्ते धोते हैं।
ना वो गंदी सी जेब रही,
ना गुलेल की कशिश रही,
अब बटुए में तस्वीरें हैं,
जिनमें मुस्कान भी बंधक है।
कभी माँ की डाँट में अपनापन था,
कभी पिता की चुप्पी में समर्पण था,
आज सलाह भी सौदे जैसी,
हर रिश्ते में गणित का रंग है।
कितना आसान था रो लेना,
कितना सच्चा था सो लेना,
अब आँसू भी मंज़ूरी माँगते हैं,
और नींद दवा से आती है।
कैसी विडम्बना है उम्र की रीत,
हर जीत में मिलती है कोई हार अजीत,
बचपन की हार भी मीठी लगती थी,
बड़ों की जीत भी क्यों सूनी लगती है।
कभी गुल्लक में सिक्के भरते थे,
उनसे सपनों के मेले सजते थे,
अब बैंक बैलेंस की चिंता है,
फिर भी सपने आधे ही रहते हैं।
ना वो मीठे लालच रहे,
ना मेले के झूले रहे,
अब सैर-सपाटे भी थकान बने,
ना दिल के हँसी ठहाके रहे।
कभी दोस्तों संग छुपन-छुपाई थी,
हर हार भी मीठी सज़ाई थी,
अब दोस्त भी काम में खोए हैं,
बातें भी बस औपचारिक हो गई हैं।
ना वो कंधों पे झगड़े रहे,
ना रूठने-मनाने के किस्से रहे,
अब रूठे तो दूरी बढ़ जाती है,
ना अपनापन बाँहों में सिमटता है।
कभी दादी की कहानियाँ सोने से पहले,
सपनों में रंग भरती थीं अकेले,
अब मोबाइल की स्क्रीन चमकती है,
पर नींद वही अधूरी रहती है।
समय के पंखों पे उड़ते हुए,
हम सब कहीं दूर बह गए,
पर बचपन की खुशबू मिट्टी में,
आज भी हमें पुकारती है।
कैसी विडम्बना है जीवन की डगर,
हर उम्र हमें बाँधती है मगर,
बचपन ही सबसे सच्चा सच है,
बाक़ी तो बस समझौते की उमर।
कभी बारिश में भीगना त्योहार था,
छप-छप पानी में कूदना प्यार था,
अब छतरी लिए निकलते हैं हम,
भीगने का मज़ा कहाँ गुम हो गया?
ना वो बरसात का गीत रहा,
ना गली में खेल का मीत रहा,
अब गाड़ियों की रफ़्तार है बस,
दिल से मासूमियत दूर रहा।
कभी किताबों में फूल दबाते थे,
चुपके चुपके राज़ छुपाते थे,
अब फ़ाइलों में दस्तावेज़ ही हैं,
ना मासूम ख़त, ना निशानियाँ।
ना वो चोरी-छिपी बातें रहीं,
ना वो छोटे-छोटे इशारे रहे,
अब संवाद भी औपचारिक हैं,
ना आत्मा से इकरार रहे।
कभी खिलौनों से घर सजाते थे,
मिट्टी में ही महल बनाते थे,
अब सीमेंट-ईंट से घर बने हैं,
पर उनमें अपनापन खो गया।
समय का पहिया चलता गया,
हर रंग फीका होता गया,
पर दिल के भीतर वो बच्चा आज भी,
खामोश-सा खेलना चाहता है।
कैसी विडम्बना है बड़े होने की,
हर ओर भीड़ है, पर तन्हाई गहरी,
बचपन की खाली जेब अमीर थी,
बड़ों की भरी जेबें भी वीरान हैं।
कभी रबर की गेंद उछालते थे,
हर बार नयी हँसी निकालते थे,
अब यादों की गेंद उछलती है,
और लौटकर बस सन्नाटा लाती है।
ना वो खेल का शोर रहा,
ना हँसी का उपहार रहा,
अब घड़ी की टिक-टिक ही साथी है,
ना दिल में बेफ़िक्री का संसार रहा।
कभी बुढ़िया की झुर्रियाँ कहानी थीं,
हर लकीर में जीवन की निशानी थी,
अब आईने में अपनी ही लकीरें,
सवाल पूछती हैं बेरहमी से।
ना वो उम्र की नर्मी रही,
ना चेहरे की रोशनी रही,
अब थकान ही दर्पण में झलकती है,
ना आँखों में चमक बची रही।
कभी जवानी भी झूम के आई थी,
हर ख़्वाब परचम लहराई थी,
अब ख्वाहिशें थक गईं सफ़र से,
बस साँसें ही रोज़ निभाई सी।
ओह ज़िन्दगी! तेरे हर पड़ाव पे,
हमने हँसना चाहा, रोना चाहा,
पर सबसे मीठा, सबसे सच्चा,
बचपन ही था—जिसे लौटना चाहा।
कैसी विडम्बना है इस सफ़र की,
जहाँ हर मोड़ पे कोई कमी रही,
बचपन ही एकमात्र जश्न था,
बाक़ी तो बस उम्र की थमी रही।