इस जहांँ से जो चले जाते हैं उन्हें कोई लाए भी तो कैसे?
दिखते नहीं कहीं निशांँ कहांँ तक कोई जाए भी तो कैसे?
दे कर सीने में उल्फ़त शोलों का ख़ुद बन जाते हैं धुआँ
उम्र भर सुलगते शरारों को कोई बुझाए भी तो कैसे?
जो बातें जमीं बर्फ़ हो गई जीवन भर के लिए
कुछ देर के लिए हीं सही कोई पिघलाए भी तो कैसे?