चंद कागजों के ढ़ेर पर,
पत्थरों की इमारत बनी थी।
जैसे ही हृदय की गति थमी,
इमारत बिक गई थी।
ताउम्र,
कागज और पत्थर जोड़ता रहा।
मंजिल से मुंह मोड़ता रहा।
तलाशता रहा हुनर,
कागज से पत्थर कमाने के।
और अंत में,
ना कागज काम आया
और ना पत्थर।
और जो बची थी, मिट्टी।
और उसे भी हवा ने न अपनाया।