जो हँसती है…
वो चेहरे पर फूल रखती है,
पर भीतर —
हर काँटे की चुभन को मौन में पीती है।
वो ठहाके नहीं,
ख़ुद से जूझने की तरकीबें हैं,
जिन्हें वो दूसरों को हँसाकर छुपा लेती है।
जो बोलती है…
वो अक्सर सुनती नहीं —
ख़ुद की टूटी पुकारों को,
क्योंकि दूसरों की आवाज़ों को
पहले सीने से लगाती है।
उसकी बातों में संगीत है,
पर किसी ने उसकी
चुप्पियों का राग नहीं सुना।
जो सबसे ज़्यादा हँसती है…
वो अकेले में सबसे ज़्यादा टूटी होती है,
और फिर ख़ुद को जोड़ती है —
किसी मंदिर की टूटी मूर्ति की तरह,
जिसे कोई पुजारी नहीं पहचानता।
वो जो चंचल है, खिलखिलाती है —
वो दरअसल एक
अनंत गहराई का चेहरा है,
जिसके अंदर माँ काली बैठी है —
और बाहर राधा मुस्कुराती है।
वो जो सबकी दोस्त है, सबको हँसाती है —
वो कभी ख़ुद से बात नहीं करती,
क्योंकि वो जानती है,
कि अगर एक बार टूटकर रोई —
तो समुद्र बह जाएगा,
और कोई नहीं समेट पाएगा।
जो हँसती है — वो झूठी नहीं होती,
वो बस सबके लिए सच्ची होती है
और ख़ुद के लिए मौन।
ऐसी स्त्री देवी होती है —
जो बोलती है,
मगर हर शब्द से
दूसरों की पीड़ा बाँध लेती है।
ऐसी स्त्री स्वयं एक साधना होती है।