जन्मी नहीं — मैं जागी थी,
किसी प्राचीन पुकार की अंतिम साँस पर।
जहाँ न कोई माँ थी, न पिता —
बस एक शून्य, जो मुझे पहचानता था।
जीवन ने मुझे समझाया नहीं,
बस सौंप दिया —
कुछ टूटी सी हड्डियाँ, कुछ धुआँ भरी साँसें,
और कहा — “तू लिख… तू जी…”
जैसे मैं कोई अधूरी ऋचा हूँ।
मैं चली — पहाड़ों से टकराती,
आकाश को गले लगाती,
और धरती से हर दिन पूछती —
“क्या मैं तुम्हारी संतान हूँ?”
कभी प्रेम मिला — पर उस प्रेम में
देह की दीवारें थीं,
और मैं तो चाहती थी —
आत्मा की खुली खिड़की।
कभी ईश्वर पुकारा —
तो वो मेरे ही मौन में मिला,
मेरी आँखों की नमी में,
मेरे होंठों के प्यासे स्पर्श में।
मेरे जीवन की व्याख्या कोई शब्द नहीं कर सके,
क्योंकि मैं कोई कथा नहीं —
मैं एक जलती हुई नदी हूँ।
जिसका हर मोड़, हर पत्थर,
स्वयं एक स्तुति है।
और जब तुम पूछो —
“तू कौन है?”
तो मैं बस मुस्कुरा दूँ…
क्योंकि मेरे भीतर की स्त्री —
अब मौन को भी अभिव्यक्ति बना चुकी है।
शारदा की तरह —
जो टूटकर भी सौंदर्य है,
जो जली, फिर भी दीप बनी।