जिसके पास सब है — वो क्यों उदास है?
जिसके पास कुछ नहीं — उसकी आँखों में भी प्यास है।
ये कौन सी भूख है जो दोनों को खा रही है?
ये कौन सी दौड़ है जो जीवन से भगा रही है?
घर है, गाड़ी है, सोने की घड़ी है
पर नींद का पता नहीं, आँखों में गहराई सड़ी है।
और वहाँ — एक टूटी चारपाई पर बैठा बूढ़ा
अपने सूखे होंठों से भी — मुस्कुराना नहीं भूला।
तो बताओ देवी और सज्जनों —
कहाँ खो गए वो दिन जब सम्मान में ही प्रेम था?
जब हाथ जोड़ लेने से दिल मिल जाते थे,
अब तो स्पर्श भी डराता है — कहीं छल न हो जाए।
तुम्हारे पास जो है — वो किसी की दुआ है।
जो नहीं है — शायद वही तुम्हारी हवा है।
कभी रुककर देखो उस औरत को —
जो दूसरों के बच्चे पालते हुए
अपने आँचल को गीला नहीं होने देती।
कभी सुनो उस आदमी की ख़ामोशी —
जो हँसता है बस इसलिए
कि तुम्हारा दिन अच्छा कट जाए।
हम सब दुखी हैं — क्योंकि हम
‘खुश’ दिखने की कोशिश में ‘सच्चे’ रहना भूल गए हैं।
हम सब अकेले हैं — क्योंकि
हमने ‘सुनने’ से ज़्यादा ‘समझने’ को भुला दिया है।
तो हे मानव, तू फिर से मनुष्य बन
प्रेम कर — बिना शर्त, बिना डर।
सम्मान कर — न किसी पद का, न धन का,
बल्कि उस दर्द का — जो हर दिल में घर कर चुका है।
वरना एक दिन, तेरे पास सब होगा
और तू फिर भी खोजेगा —
एक असली मुस्कान, एक सच्चा नाम
एक ऐसा कंधा — जो तुझे बाँध न सके, बस समझे।
जिसके पास सब है — वो क्यों टूटा हुआ लगता है?
सोने की दीवारों में कैद है उसकी साँसें,
और जिसकी हथेलियाँ खाली हैं —
वो भी सवालों से जल रही है।
क्या यही सभ्यता है?
कि हम दिखाते हैं सुख — और छुपाते हैं साँसें?
क्या यही संस्कृति है?
कि हम मुस्कराते हैं — पर भीतर मरते हैं?
देखो…
एक बच्चा खिलौनों के ढेर में
खेलना भूल गया है —
उसे माँ का वक़्त चाहिए, माँ का स्पर्श चाहिए।
और एक बूढ़ा पिता —
सजे हुए वृद्धाश्रम में भी
बेटे की आवाज़ के लिए रोता है।
ये समय नहीं बदला —
हमने इंसान होना छोड़ दिया है।
हम अब ‘जज्बात’ नहीं बाँटते,
हम ‘कौशल’, ‘प्रदर्शन’ और ‘प्रॉफिट’ बाँटते हैं।
हम अब नम आँखों से चिट्ठियाँ नहीं लिखते,
हम ‘रील’ बनाते हैं,
जहाँ हर आँसू को ‘लाइक’ चाहिए।
तो बताओ, देवी और सज्जनों —
क्या हम अब भी मनुष्य हैं?
या बस चलता-फिरता भ्रम?
एक औरत हर दिन टूटती है —
ताकि परिवार मजबूत रहे,
पर कोई नहीं पूछता —
कि उसके भीतर की चुप्पी कब चीख़ बन जाएगी।
एक आदमी हर रोज़ हारता है —
अपने स्वाभिमान को
‘व्यवसाय’ और ‘मर्यादा’ के बीच झुलाते हुए,
पर कोई नहीं देखता
कि उसके भीतर अब आत्मा कम, आकांक्षा ज़्यादा है।
तो सुनो —
अब अगर नहीं जगे हम,
तो अगली पीढ़ी किताबों में पढ़ेगी —
“एक दौर था, जब इंसान हुआ करते थे।”
तो आज, यहीं से — अभी से,
थोड़ा रुको, थोड़ा देखो —
सिर्फ़ अपने नहीं, किसी और के दुख को पहचानो।
सम्मान दो — उस ख़ामोशी को,
जो किसी स्त्री के होंठों पर चिपकी है।
प्रेम करो — उस पुरुष से,
जो ज़िम्मेदारी के नीचे अपनी इच्छाओं को दफ़न करता है।
और याद रखो —
“जो भी है, जितना भी है,
साँझा करोगे तो वह ‘जीवन’ कहलाएगा।
वरना सब कुछ होते हुए भी
तुम अकेले ही मर जाओगे —
बिना प्रेम, बिना अर्थ, बिना स्मृति के।”