मैं उसे छू नहीं पाया —
वो हवा की तरह नहीं था,
कि हथेली फैलाकर थाम लेता,
वो तो जैसे प्रश्न बनकर
उतरता रहा मेरी आत्मा में।
कभी किसी पुरानी किताब की महक में,
कभी पसीने में भीगी नींद के भीतर,
वो मुझे बिना कहे सुनाता रहा
मेरे ही अनकहे शब्द।
मैंने उसे पहचानना चाहा —
रात की ठंडी दीवारों पर
मैंने उसकी परछाइयाँ टाँकीं,
पर हर सुबह
वो कोई और शक्ल पहन लेता।
मैं उसे छू नहीं पाया —
पर जब मैं टूटा,
वो मेरे भीतर
दरारों से बोलने लगा।
मैं उसके लिए कभी ‘कोई’ नहीं था,
पर मैं उसकी हर चुप्पी में
एक नाम बनकर गूंजता रहा।
वो प्रेम नहीं था,
ना ही कोई ईश्वर —
वो बस एक जागता हुआ मौन था,
जो मेरी धड़कनों को
अपने अर्थ देता रहा।
अब मैं उसे पहचान नहीं पाता,
पर जब मैं कुछ नहीं कहता,
वो तभी सबसे ज़्यादा
मुझमें बोलता है।
कभी वो
भीगे हुए दीपक की लौ में मिला —
जो जलता नहीं था,
पर फिर भी
मेरे अँधेरे को बुझाता रहा।
वो लौ नहीं था,
ना ही रौशनी —
वो एक साँस था
जो बिना आवाज़ के
मेरी हर धड़कन में कविता रचता रहा।
एक बार वो
बिना किसी पदचिन्ह के
मेरे रास्ते से गुज़रा —
और तब से
माटी भी मेरी रूह की तरह काँपने लगी।
मैंने धरती को टटोला,
आकाश को छुआ,
पर सबसे गहरा निशान
मेरे भीतर की ख़ामोशी पर पड़ा
जहाँ वो हर बार
मुझे मेरे ही सवालों से जवाब देता रहा।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड