अहम् एक वहम् ही है
काश!
हमारा अहम् भी जल सा होता
पहाड़ों के पत्थरों से टकराता
कभी थोड़ा टूटता
कभी बजरी,रेत ,बालू से रगड़ खाता
रोज नए नए रास्तों से गुज़रता
बिखरता संभलता निखरता जाता
एक क्षण ऐसा आता
झरना बन नदी में मिल जाता
निर्मल हो तीर्थ बन जाता
उसमें डुबकी जो भी लगाता
उसका भी अहम् एक “वहम्” बन जाता ..
वन्दना सूद