मैंने तुझे देखा था
बदलते मौसम की साँसों में –
सावन की पहली हरियाली-सा हरा,
और पतझड़ की आख़िरी धूप-सा सुनहरा।
मैंने तुझे सुना था
नदी की कलकल में,
और…
धरती के उस मौन में –
जहाँ कोई शब्द नहीं बोलता,
बस तू,
साँसों की लय में
अनकहा-सा बहता है।
मैंने तुझे छुआ था
हवा के उस झोंके में
जो मेरी रूह को
तेरे नाम की तरह छूकर
गुज़र जाता था…
… और वहीं
मैं थम गया था।
मैंने तुझे सूंघा था
गुलाब की खुशबू में नहीं,
बल्कि उस मिट्टी में
जो पहली बारिश के बाद
“माँ” की तरह
गंध से भर उठती है –
तू वहीं था,
भीगा हुआ…
पर मुस्कुराता।
मैंने तुझे चूमा
हर सुबह की उस रौशनी में,
जो मेरे माथे पर
तेरे नूर का चंदन लगाकर
चुपचाप लौट जाती है।
और वो चाँद –
जो मेरी आत्मा को
तेरी खामोशी की थपकी दे जाता है
हर रात।
मैंने तुझे पुकारा
हर उस परिंदे में
जो खुले आकाश को
तेरा घर समझ कर उड़ता है…
हर उस फूल में
जो पत्तों के बिना भी
तेरे नाम पर मुस्कुरा उठता है।
फिर मैंने
ख़ुद को देखा –
आईना थामे,
तेरे ही रंग में रंगा…
और मैं डर गया।
क्योंकि —
तू
ना कोई रूप था,
ना रंग,
ना कोई गंध,
ना कोई आवाज़।
तू तो वो था –
जो हर चीज़ को
रंग दे जाता है,
खुशबू बना जाता है…
और फिर
स्वयं
ओझल हो जाता है।
तू
हर दृश्य से सुंदर,
हर गंध से पवित्र,
हर शब्द से परे था।
तू – केवल “है”…
बिना कहे… बिना दिखे…
सर्वत्र… सर्वथा…
सत्य सा।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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