थक चुका हूँ मैं
इन गलियों में,
जहाँ हर चेहरा
धुंधली परछाईं-सा
मेरे भीतर उतर आता है।
साल पर साल गुज़र गए—
जैसे टूटी माला के मनके
धरती पर बिखरते हों,
और मैं अब भी
अपना ही धागा खोज रहा हूँ।
मैं लौट जाना चाहता हूँ—
गाँव की झोपडी में,
पहाड़ों की ख़ामोशी में,
नदियों की धार में
जंगलों की गीली मिट्टी में,
जहाँ पत्ते
हवा से धीमे स्वर में
रहस्य कहते हैं।
मैं चाहता हूँ
अपने भीतर की जली हुई लकड़ी से
एक उजली राख बनाऊँ,
और उसी राख में
नए जीवन का बीज बो दूँ।
शहर की चिलचिलाहट
मेरी साँसें तोड़ देती है,
पर जंगल की नीरवता
मेरी साँसों को
फिर जोड़ देती है।
मैं अपने चारों ओर
एक ऐसा लोक गढ़ना चाहता हूँ
जहाँ धूप
पलकों पर ठहर सके,
और छाँव
मन की थकान उतार दे।
मैं अपनी हथेलियों पर
आकाश की नमी महसूस करना चाहता हूँ—
जैसे कोई अदृश्य स्पर्श
मुझे घर की ओर बुला रहा हो।
मैं अब घर लौट जाना चाहता हूँ।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड