हर दिन कुछ बूँदें गिरती हैं,
ना आँखों से, ना कपोलों से,
पर कहीं भीतर, बहुत भीतर,
जहाँ संवेदनाएँ जन्म लेती थीं।
पहले छोटी-छोटी बातें भी
मन में हलचल कर जाती थीं,
किसी का दुःख, किसी की पीड़ा,
अपना ही हृदय छलनी कर जाती थीं।
अब वैसा कुछ नहीं होता,
दृश्य वही हैं, पर अंतर कुछ बदला है,
कहीं कोई बच्चा भूखा सोता है,
पर मन में कोई कंपन नहीं उठती।
समाचारों में सिसकती लाशें देख
आँखें स्थिर रह जाती हैं,
कल तक जिनके लिए हृदय तड़प उठता,
आज वही दृश्य साधारण होते जा रहे हैं।
कहीं कुछ सूख रहा है भीतर,
शायद वही संवेदनाओं का स्रोत,
जो कभी मन की मिट्टी को
भीगाकर कोमल बनाए रखता था।
क्या मैं पत्थर होता जा रहा हूँ?
क्या यह दुनिया की ठोकरों का असर है?
या फिर समाज ने धीरे-धीरे
मन को निर्विकार बनाना सिखा दिया है?
अगर यही समय का प्रवाह है,
तो मुझे इससे डर लगता है,
क्योंकि जब मन ही भावशून्य हो जाए,
तो इंसान, इंसान कहाँ रह जाता है?
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट,जमशेदपुर,झारखण्ड