न जाने कितनी रातें
मैंने चुपचाप पी ली हैं,
जैसे चाँदनी ने
अपने ही आँसुओं को
ओस बनाकर धरती पर टपका दिया हो।
मेरा मन—
टूटी वीणा की तरह
तेरे मौन स्वर की प्रतीक्षा करता रहा,
पर हर तार
केवल करुण प्रतिध्वनि बनकर
मुझे ही लौटा गया।
अंधकार की गोद में
मैंने तेरी आहट खोजी,
पर केवल शून्य मिला—
जिसके हर कोने में
तेरी ही स्मृति
अनदेखे दीपक-सी झिलमिलाती रही।
ओ अनजान सखे!
तू कब तक
मेरे मौन को यूँ ही सुनता रहेगा?
कभी तो तेरी वंशी
इस वीरान हृदय में बजेगी,
कभी तो तेरी छाया
मेरे आँसुओं को अपना आँचल देगी।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड