मुझे इस हाड़-मांस के पिंजरे से आज़ाद कर दो,
जहाँ हर साँस एक बंधन है, हर ख्वाब अधूरा है।
मुझे उन हवाओं में उड़ने दो,
जो धरती से आकाश तक बेखटक बहती हैं।
यह शरीर, यह क़ैद, यह ठहरी हुई धड़कनें,
अब मेरी पहचान नहीं।
मुझे उन सितारों में समा जाने दो,
जो मौन रहकर भी पूरी रात को रोशन कर देते हैं।
मुझे उस सागर में विलीन होने दो,
जहाँ न कोई सवाल है, न जवाब,
जहाँ गहराइयाँ ही सत्य हैं,
और लहरें जन्म-मरण का गीत गाती हैं।
मुझे इस छलावे से मुक्त कर दो,
जहाँ रिश्ते भी धागों की तरह उलझे हैं,
जहाँ हर राह मंज़िल से पहले खो जाती है,
जहाँ हर आहट भ्रम बनकर गूंजती है।
मुझे उस पथ पर बढ़ने दो,
जहाँ न कोई छाया हो, न कोई आंधी,
जहाँ मौन स्वयं संवाद करे,
जहाँ हर क़दम सत्य की गूंज में खो जाए।
मैं उड़ना चाहता हूँ, कहीं दूर…
जहाँ न दूरी हो, न निकटता,
जहाँ केवल अस्तित्व शेष हो,
और मेरी परछाईं भी मेरे संग विलीन हो जाए।
जहाँ मेरी खामोशी भी गीत बने,
जहाँ मौन भी बोल सके,
जहाँ मैं इस सृष्टि से परे,
सिर्फ़ तुझे सुन सकूँ।
मुझे उस अनंत में खो जाने दो,
जहाँ समय भी सिर झुकाकर ठहर जाए,
जहाँ देह का अस्तित्व माटी बन जाए,
और आत्मा तेरी नाद में विलीन हो जाए।
मुझे मुक्त कर दो—
इस पिंजरे से, इस देह से, इस पहचान से,
ताकि मैं अमृत में समा सकूँ,
जहाँ कोई बंधन न हो, कोई सीमा न हो,
बस शुद्ध प्रकाश हो, और केवल तू हो।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड